डाटा कम्युनिकेशन की तकनीकें | Data Communication Techniques in Hindi

डाटा कम्युनिकेशन की तकनीकें | Data Communication Techniques in Hindi

डाटा संचार (Data Communication)
डाटा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना डाटा कम्यूनिकेशन कहलाता है तथा ऐसी पद्धति, जिसमें कैरियर तथा अन्य सम्बन्धित युक्तियाँ होती है, जो कि डाटा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में प्रयुक्त होती हैं,डाटा कम्यूनिकेशन सिस्टम कहलाती हैं।

टेलीग्राफी (Telegraphy)

टेलीग्राफी वह संचार तकनीक है जिसमें लिखित शब्दों के रूप में उपलब्ध सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ट्रांसफर किया जाता है। टेलीग्राफी द्वारा भेजी जाने वाली सूचना को पहले कोड में कन्वर्ट किया जाता है तथा इस कोड को ट्रांसलेट किया जाता है। रिसीवर पर इस कोड को रिसीव किया जाता है तथा इस कोड के आधार पर मूल सूचना रिकवर की जाती है।
टेलीग्राफी में सूचना को कोड के रूप में ट्रांसलेट किया जाता है। इसमें प्रत्येक कैरेक्टर (अर्थात अल्फाबेट्स तथा डिजिट्स इत्यादि) के लिए एक निर्धारित कोड होता है। अतः सूचना का संचरण कोड के रूप में होता है।

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डाटा कम्युनिकेशन की तकनीकें | Data Communication Techniques in Hindi

व्यावसायिक टेलीग्राफी में मॉर्स कोड (Morse Code) का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रत्येक कैरेक्टर को डॉट या डैश के विभिन्न संयोगों से कोड किया जाता है। प्रत्येक करैक्टर के लिए डॉट या डैश के संयोग से बना एक कोड निर्धारित किया गया है। जब भी उस कैरेक्टर को ट्रांसफर करना होता है उस कैरेक्टर को डॉट या डैश से बना कोड ट्रांसमिट किया जाता है।
टेलीग्राफ ट्रांसमीटर के रूप में मॉर्स कुँजी (Morse Key) का प्रयोग किया जाता है। जबकि टेलीग्राफ रिसीवर के रूप में मॉर्स साउंडर का प्रयोग किया जाता है।

टेलीफोनी (Telephony)

ध्वनि तरंगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रेषित करना टेलीफोनी कहलाता है। टेलीफोनी में ध्वनि तरंगों को ऑडियो आवृत्ति विद्युत एनालॉग सिग्नल में कन्वर्ट किया जाता है तथा फिर इन्हें विद्युत ट्रांसमिशन सिस्टम पर ट्रांसमिट किया जाता है। रिसीवर पर इन वैद्युत सिगनलों को पुनः साउंड सिग्नल में परिवर्तित किया जाता है। 
टेलीफोनी में ट्रांसमीटर के रूप में माइक्रोफोन का प्रयोग किया जाता है। माइक्रोफोन एक ट्रांसड्यूसर होता है जो ध्वनि ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में कन्वर्ट करता है। टेलीफोन रिसीवर वैद्युत ऊर्जा को पुनः ध्वनि ऊर्जा में कन्वर्ट करता है।

 डिजिटल संचार (Digital Communication)

डिजिटल संचार पद्धतियों में मॉड्यूलेटिंग सिगनल डिजिटल होता है। इनपुट मैसेज को ट्रांसड्यूसर द्वारा विद्युत रूप में बदला जाता है। इसके पश्चात इस डाटा को बाइनरी प्रारूप में कन्वर्ट किया जाता है। फिर इस बाइनरी डाटा को डिजिटल मॉड्यूलेटर की सहायता से बाइनरी तरंग के आकार में बदला जाता है तथा ट्रांसमिट किया जाता है।
रिसीवर पर सिगनल को रिसीव करने के पश्चात उस पर noise के प्रभाव को समाप्त करके उसका डीमॉड्यूलेशन किया जाता है। Decoder द्वारा सिगनल को डिकोड करके मूल सिगनल रिकवर किया जाता है। इस वैद्युत सिग्नल को ट्रांसड्यूसर द्वारा मूल रूप में कन्वर्ट कर दिया जाता है।


माइक्रोवेव संचार (Microwave Communication) 

माइक्रोवेव वह वैद्युत चुंबकीय तरंगे होती हैं जिसकी आवृति 1 GHz से 300 GHz होती है। इनकी तरंगदैर्ध्य कुछ मिलीमीटर के क्रम में होती है। माइक्रोवेव में अच्छे दैशिक गुण होते हैं अर्थात इसमें प्रकाश की तरह सीधी रेखाओं में गति करने का गुण होता है। अतः माइक्रोवेव को प्रकाश पुँज की भाँति किसी एक दिशा में बीम (beam) किया जा सकता है। चूँकि यह सीधी चलती है अतः यह अपने मार्ग में आने वाले अवरोध जैसे पर्वत, इमारतें इत्यादि द्वारा फैलती या मुड़ती नहीं है। माइक्रोवेव संचार तभी सम्भव है जब ट्रांसमिटिंग एन्टीना व रिसीविंग एन्टीना लाइन ऑफ साइट (line of sight) हो। अत: माइक्रोवेव ट्रांसमिशन को लाइन ऑफ साइट ट्रांसमिशन भी कहा जाता है।
माइक्रोवेव ट्रांसमिशन की रेंज सीमित होती है (लगभग 50 किमी की दूरी तक क्योकि)- (i) पृथ्वी के वक्रता के कारण (ii) सिगनल की आवृत्ति उच्च होने के कारण ग्राउन्ड द्वारा सिगनल का अवशोषण, जिससे सिगनल कुछ दूरी तक propagate करने के पश्चात् क्षीण हो जाता है।

माइक्रोवेव ट्रांसमिशन की रेंज बढ़ाने के लिये ट्रांसमीटर व रिसीवर के मध्य रिपीटर लगाये जाते हैं। ट्रांसमीटर व रिसीवर के मध्य कुछ दूरी पर इस प्रकार के कई रिपीटर लगाये जाते हैं । प्रत्येक रिपीटर सिगनल को रिसीव करता है, उसका प्रवर्धन करता है, और अगले रिपीटर को रिले (relay) कर देता है। किन्तु इससे दो स्टेशन के मध्य सिगनल को ट्रांसमिट करने का खर्च बढ़ जाता है ।

पृथ्वी पर विभिन्न महासागर व पर्वत होने के कारण माइक्रोवेव ट्रांसमिशन द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी को कवर नहीं किया जा सकता। इस समस्या के समाधान हेतु संचार उपग्रहों का प्रयोग किया जाता है जिससे पूर्ण पृथ्वी को तीन भू-स्थिर उपग्रहों के सहायता से कवर किया जा सकता है।

ऑपटिकल फाइबर संचार (Optical Fiber Communication)

ऑपटिकल संचार वह विधि है जिसके द्वारा सूचना को ऑपटिकल कैरियर तरंगों की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता है। आप जानते होगें कि प्रकाश की गति विभिन्न माध्यम में अलग-अलग होती है । यदि प्रकाश पुँज सघन माध्यम से दुर्लभ माध्यम की ओर जाता है तो वह सामान्य से दूर हो जाती है अर्थात् अपवर्तन कोण, का मान आपतन कोण से अधिक होता है। यदि आपतन कोण के मान को बढ़ाया जाये तो एक स्थिति ऐसी आती है कि प्रकाश पुंज अपवर्तित (refract) नही होता बल्कि परावर्तन (reflection) हो जाता है। इस प्रक्रिया को सम्पूर्ण आन्तरिक परावर्तन (total internal reflection) कहा जाता है। ऑपटिकल फाइबर में प्रकाश का बार-बार सम्पूर्ण आन्तरिक परावर्तन होता है, जिससे वह फाइबर में लम्बी दूरी तक जाता है।

फाइबर ऑपटिक संचार सिस्टम के मुख्य घटक हैं-(a) ट्रांसमीटर, जिसमें प्रकाश स्रोत व सम्बन्धित ड्राइव परिपथ होते हैं,(b) ऑपटिकल फाइबर जिनमें प्रकाश का संचरण होता है तथा (c) रिसीवर, जिसमें डिटैक्टर, प्रवर्धक तथा अन्य परिपथ होते हैं।
इंजैक्शन लेंजर डायोड (ILD) तथा लाइट इमिटिंग डायोड (LED) को ऑपटिकल संचार में प्रकाश स्रोत के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। फोटो डिटैक्टर मॉड्यूलेटेड प्रकाश सिगनल को पुनः वैद्युत सिगनल में कनवर्ट करते हैं। मुख्यतः PIN फोटोडायोड व एवलांच फोटोडायोड को प्रयुक्त किया जाता है।

भारत में फाइबर आपटिक्स का आरम्भ पुणे में हुआ, जब दो टेलीफोन एक्सचेंज के फाइबर लिंक किया गया। तत्पश्चात्, बड़ौदा व अहमदाबाद के मध्य फाइबर लाइन बिछायी गई। 1985-88 के मध्य 2500 Km लम्बे फाइबर आपटिक सिस्टम लगाया गया। 1988 में ऑपटेल टेलीकम्यूनिकेशन लिमिटेड (Optel Telecommunication Ltd.) ने बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट हेतु पिपरऊ व बचर द्वीप के मध्य ऑपटिकल फाइबर सिस्टम की स्थापना की। ऑपटिकल फाइबर व ऑपटिकल फाइबर केबिल का निर्माण करने वाली मुख्य भारतीय कम्पनियाँ हैं-ऑपटेल टेलीकम्यूनिकेशन लिमिटेड भोपाल तथा हिन्दुस्तान केबिल लिमिटेड,नैनी।

सैटेलाइट संचार (Satellite Communication)

उपग्रह संचार वह विधि है जिसमें सिगनल को उपग्रह के माध्यम से ट्रांसमिटर से रिसीवर को संचरित किया जाता है। भारत के लिये अन्तर्राष्ट्रीय उपग्रह संचार तब सम्भव हुआ है जब भारत 1970 में INTELSAT का सदस्य बना तथा पुणे के निकट, आरवी (Arvi) में प्रथम earth स्टेशन की commissioning की गई। भारत में घरेलू उपग्रह संचार 1977 में सैटेलाइट टेलीकम्यूनिकेशन एक्सपैरिमैंटल प्रोग्राम (STEP) की सहायता से प्रारम्भ किया गया। 1983 में INSAT सीरीज के उपग्रहों के लाँच होने के पश्चात् उपग्रह सेवाओं में काफी वृद्धि हुई है।

मोबाइल संचार (Mobile Communication)

मोबाइल संचार का तात्पर्य उस पद्धति से है, जिसकी सहायता से लोगों को मध्य तब सम्पर्क स्थापित किया जा सके, जब वह घूम रहे हों। इसके लिये सैलुलर मोबाइल दूरसंचार तकनीक का विकास किया गया। इस पद्धति में सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र को छोटे-छोटे cells में बॉट दिया जाता है । यह सैल (cells) षड्कोण (hexagon) के आकार के होते हैं। प्रत्येक सैल का एक बेस स्टेशन होता है। सैल के अन्दर के मोबाइल फ़ोन्स का सैल के बेस स्टेशन से सम्पर्क बना रहता है। इस प्रकार सेल की सभी कॉल बेस स्टेशन के द्वारा ठीक उसी प्रकार रूट की जाती हैं जैसे कि साधारण टेलीफोनी में लोकल एक्सचेंज करता है।

मोबाइल टेलीफोन के लिये विभिन्न तकनीकें उपलब्ध हैं- TACS (Total Access Communication System), CT-2, NMT (Nordic Mobile Telephones), AMPS (Advance Mobile Phone System) भारत में मोबाइल सेवाओं हेतु GSM (Global System for Mobile Communication) तकनीक का प्रयोग किया जाता है। GSM 900 MHz की बैंडविडथ में कार्य करती है, तथा इसमें 200 KHz का frequency separation होता है।
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