सैलुलर टेलीफोनी का संक्षिप्त विवरण | Cellular Telephony Short Note in Hindi
सैलुलर मोबाइल रेडियो टेलीफोनी संचार सेवाओं की विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। सैलुलर पद्धतियों का उद्देश्य उपभोक्ताओं को उस समय टेलीफोन सेवाएँ उपलब्ध कराना है जब वह गतिमान हों अर्थात् घर से बाहर आ जा रहे हों। इन सेवाओं की आवश्यकता बिजनेसमैन को, उच्चाधिकारियों को, डाक्टरों को, सैल्समैनों को तथा फील्ड जॉब वाले लोगों को पड़ती है।
सैलुलर टेलीफोनी का इतिहास
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में मिलिट्री संचार में मोबाइल रेडियो टेलीफ़ोन का प्रयोग किया जाता था। 1946 में प्रथम कार-आधारित टेलीफोन सेंट लुइस मे स्थापित किया गया। इस प्रणाली में एक ऊंची इमारत के ऊपर एक बडा टांसमीटर स्थापित किया गया। इस प्रणाली में सिगनल भेजने व रिसीव करने हेतु एक ही चैनल का प्रयोग किया जाता था। बोलने हेतु उपभोक्ता को एक बटन दबाना पड़ता था जो ट्रांसमीटर को इनेबल तथा रिसीवर को डिसेबल करता था। इस प्रकार के सिस्टम जिन्हें पुश-टू-टॉक सिस्टम (push-to-talk systems) के नाम से जाना जाता था, 1950 के बाद कई शहरों में स्थापित किये गये। इस तकनीक को CB-रेडियो, टैक्सी तथा पुलिस कारों द्वारा प्रयोग किया जाता था। साठ के दशक में IMTS (Improved Mobile Telephone Service) की स्थापना की गई। यह पद्धति भी एक पर्वत के ऊपर स्थापित उच्च शक्ति (200 W) ट्रांसमीटर का प्रयोग करती थी किन्तु इसमें दो आवृत्तियों का प्रयोग होता था, एक भेजने हेतु तथा एक रिसीविंग हेतु। अतः इसमें push-to-talk बटन की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। IMTS में 23 चैनल थे जो कि 150 MHz से 450 MHz आवृत्ति बैंड में स्थित थे। कम चैनल होने के कारण उपभोक्ता को डायल टोन सुनने हेतु काफी समय इन्तजार करना होता था। ट्रांसमीटर की पॉवर क्षमता इतनी अधिक होने के कारण दो adjacent systems के मध्य interference ना होने देने हेतु उन्हें कई सौ किलोमीटर की दूरी पर रखना आवश्यक था। इन समस्याओं के कारण तथा सीमित क्षमताओं के कारण यह सिस्टम अव्यवहारिक (impractical) था।
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सैलुलर टेलीफोनी का संक्षिप्त विवरण | Cellular Telephony Short Note in Hindi |
सेलुलर संरचना (Cellular structure)
बैल लैब्स (Bel Labs) द्वारा AMPS (Advanced Mobile Phone Systems) का आविष्कार किया गया तथा 1982 में इसे अमेरिका में install किया गया। इसको इंग्लैंड में भी प्रयोग किया गया जहाँ इसे TACS कहा जाता है तथा जापान में,जहाँ इसे MCS-LI कहा जाता है। AMPS में भौगोलिक क्षेत्र (geographical area) को छोटे-छोटे भागों में विभाजित किया जाता है, जिनको सैल (cells) कहा जाता है। यह सैल षड्कोण (Hexagon) के
आकार के होते हैं। प्रत्येक सैल का एक बेस स्टेशन होता है। सैल के अन्दर के मोबाइल फ़ोन्स का सैल के बेस स्टेशन से सम्पर्क बना रहता है। इस प्रकार सैल की सभी कॉल बेस स्टेशन के द्वारा ठीक उसी प्रकार रूट की जाती हैं जैसे कि साधारण टेलीफोनी में लोकल एक्सचेंज करता है। बेस स्टेशन में कम शक्ति का ट्रांसमीटर लगा होता है जिसकी पॉवर आउटपुट इस प्रकार रखी जाती है जिससे सैल के क्षेत्र (cell area) से संतोषजनक reception हो किन्तु समान आवृत्ति पर ऑपरेट करने वाले अन्य सैलों से व्यतिकरण (interference) ना हों।
आवृत्ति आवंटन (Frequency allocation)
स्पष्ट है कि पड़ोसी सेल समान आवृत्ति पर ऑपरेट नहीं कर सकते तथा समान आवृत्ति पर ऑपरेट करने वाले सैलो के मध्य एक न्यूनतम दूरी रखना आवश्यक है जिससे कि इन सिगनलों का क्षीण ना हो जाये तथा व्यतिकरण की सम्भावना समाप्त हो जाये। सेलुलर संचार में narrow band आवृत्ति मॉडुलेशन (Narrow band FM) प्रयुक्त किया जाता है तथा कैरियर आवृत्तियों के मध्य लगभग 25 KHz का अन्तर रखा जाता है । सैलुलर मोबाइल संचार को आवंटित कुल बैंडविड्थ लगभग 280 चैनल को सपोर्ट कर सकती है।
सैलो का आकार पूरी सैलुलर रेंज में समान होना आवश्यक नहीं है। भीड़ वाले क्षेत्रों में सैल के आकार को छोटा तथा कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में बड़ा रखा जा सकता है। जब उपभोक्ता द्वारा अपने मोबाइल फोन से कॉल की जाती है तो उसका यन्त्र बेस स्टेशन को अपना टेलीफोन नम्बर भेजता है। बेस स्टेशन टेलीफोन को एक आवृत्ति संचार हेतु आवंटित करता है। जब उपभोक्ता की बातचीत समाप्त हो जाती है, तो आवृत्ति deallocate कर दी जाती है ताकि उसी सैल में दूसरे user को उपलब्ध करायी जा सके।
उपभोक्ता का एक सैल दूसरे सैल में जाना (Movement of subscriber from one cell area to another)
उपभोक्ता के एक सैल से दूसरे सैल में जाने पर कैरियर आवृत्ति को चेंज किया जाता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है। इसके लिये सिस्टम में विभिन्न सैलो के बेस स्टेशनों के साथ-साथ एक मास्टर स्टेशन होता है कि विभिन्न सैलो द्वारा आवंटित आवृत्तियों सम्बन्धी जानकारी रखता है तथा सिस्टम की कार्यप्रणाली का प्रबंधन करता है। जब मोबाइल फोन सेल में विचरण करता है तो बेस स्टेशन पर उसके received signal की signal-to-noise ratio, (S/N Ratio) भी परिवर्तित होती है। जब S/N ratio एक निर्धारित मान से कम हो जाती है, तो बेस स्टेशन का माइक्रोप्रोसेसर यह जानकारी अपने मास्टर स्टेशन को दे देता है। अब मास्टर स्टेशन उस सैल के आस-पास के सभी सैलों के बेस स्टेशनों पर चैक करता है कि उस मोबाइल फोन से रिसीव किये जा रहे सिगनल का S/N ratio किस स्टेशन पर अधिक है। उसी स्टेशन पर कॉल को ट्रांसफर कर दिया जाता है। उपभोक्ता की ट्रांसमिट व रिसीव आवृत्तियों को भी इस नये बेस स्टेशन के अनुसार स्वतः (automatically) चेंज कर दिया जाता है। हांलाकि यह प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है किन्तु इस प्रक्रिया में इतना कम समय लगता है (कुछ मिलीसैकेण्ड) जिससे उपभोक्ता को कॉल में कोई रूकावट प्रतीत नहीं होती। मोबाइल फोन का कन्ट्रोल एक बेस स्टेशन से दूसरे बेस स्टेशन को देने की प्रक्रिया हैंड ऑफ (hand off) कहलाती है तथा इसमें लगभग 300 मिली सैकेण्ड लगते हैं। सैलुलर संचार सेवा साधारण टेलीफोन सेवा से महंगी होती है। मोबाइल यूनिट का डिजाइन भी जटिल होता है क्योंकि इनमें सम्पूर्ण आवृत्ति बैंडविड्थ को कवर करने हेतु automatically tunable ट्रांसमीटर व रिसीवर होना आवश्यक है।
आज आपने क्या सीखा
सैलुलर टेलीफोनी में भौगोलिक क्षेत्र को छोटे-छोटे सैलो में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक सैल का एक बेस स्टेशन होता है तथा सैल के सभी मोबाइल टेलीफोनों का सम्पर्क बेस स्टेशन से बना रहता है। बेस स्टेशन द्वारा ही कॉल करने हेतु आवृत्ति allocated की जाती है। यदि कोई उपभोक्ता एक सैल से दूसरे सैल में जाता है तो पहला बेस स्टेशन यह सूचना मास्टर स्टेशन को देता है। मास्टर स्टेशन चैक करता है कि उपभोक्ता कौन से सैल में है तथा इसके पश्चात् मोबाइल फोन का कन्ट्रोल उस सैल के बेस स्टेशन को दे देता है।
इस आर्टिकल में सेलुलर टेलीफोनी सिस्टम पर संक्षिप्त जानकारी दी गयी है। उम्मीद है आपको समझ आया होगा। यदि आपके पास कोई प्रश्न है तो नीचे👇कमेंट में पूछ सकते है! धन्यवाद
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