राजस्थान की भाषा एवं बोलियाँ | Rajasthan Language and Dialects GK
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राजस्थान की भाषा एवं बोलियाँ | Rajasthan Language and Dialects GK |
➤ राजस्थानी बोलियों का सर्वप्रथम उल्लेख वर्ष 1907 और 1908 में सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपनी आधुनिक भारतीय भाषा विषयक विश्वकोष में किया।
➤ राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति और विकास अपभ्रंश भाषा से है, जिसके मुख्यतः तीन रूप माने गये हैं- 1. नागर 2. बाचड़ और 3. उपनागर।
राजस्थानी भाषा एवं बोलियाँ
राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति शौरसेनी गुर्जर अपभ्रंश से मानी जाती है। अपभ्रंश के मुख्यतः तीन रूप नागर, बाचड़ और उपनागर माने जाते हैं। नागर के अपभ्रंश से सन् 1000 ई. के लगभग राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति हुई। राजस्थानी एवं गुजराती का मिला-जुला रूप 16वीं सदी के अंत तक चलता रहा। 16वीं सदी के बाद राजस्थानी का विकास एवं स्वतंत्र भाषा के रूप में होने लगा। 17वीं सदी के अंत तक आते-आते राजस्थानी पूर्णतः एक स्वतंत्र भाषा
का रूप ले चुकी थी।
राजस्थानी भाषा का इतिहास से ज्ञात होता है कि वि. सं. 835 में उद्योतन सूरी द्वारा लिखित कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं मरुभाषा को भी शामिल किया गया है। कवित कुशललाभ पिंगल शिरोमणि तथा अबुल फजल की आइने अकबरी में भी मारवाड़ी शब्द प्रयुक्त हुआ है।
राजस्थानी बोलियों का प्रथम वर्णनात्मक दर्शक (1907-1908) में सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने आधुनिक भारतीय भाषा विषयक विश्वकोश Linguistic survey of india के दो खण्डों में प्रकाशित किया था। यहाँ की भाषा के लिए राजस्थानी शब्द का प्रयोग भी पहली बार किया। उन्होंने राजस्थानी भाषा की चार उपशाखाएँ बताई हैं-
पश्चिमी राजस्थानी - मारवाड़ी, मेवाती, बागड़ी, शेखावटी
मध्य पूर्वी राजस्थानी - ढूंढाड़ी, हाड़ौती
उत्तरी पूर्वी - मेवाती, अहीरवाटी
दक्षिणी पूर्वी - मालवी, निमाड़ी
ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सन् 1914-1916 तक इटली के विद्वान एल. पी. तेस्सीतोरी के इंडियन ऐन्टीक्वेटी पत्रिका के अंकों में वर्णन से राजस्थानी की उत्पत्ति और विकास पर अभूतपूर्व के ग्रंथ प्रकाश पड़ा। प्रियर्सन, लेस्सीतोरी, प्रो. नरोलम यामी, हीरालाल महेश्वरी, मोतीलाल मेनारिया, हॉपीरना गर्मा, डॉ. श्यामसुन्दरदास ने राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण किया।
डिंगल-पिंगल
ये राजस्थानी साहित्य की प्रमुख शैलिया है। गिल शब्न का प्रयोग राजस्थान के प्रसिद्ध कवि आसियो बाँकीदास ने अपनी रचना कुकविबतीसी (1871) में किया।
डिंगल
1. पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) का साहित्यिक रूप)
2. वीर रसात्मक।
3. विकास गुर्जरी अपभ्रंश से।
4. अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित।
5. राजरूपक, अचलदास खींची री वचनिका, राठौड़ रतन सिंह की बचनिका, राव जैतसी रो छंद, रुकमणिहरण, नागदमण, सगतरासौ, ढोला मारू रा दूहा।
पिंगल
1. ब्रजभाषा एवं पूर्वी राजस्थानी का साहित्यिक रूप।
2 अधिकांश काव्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित।
3. शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित।
4. पृथ्वीराज रासी, रतनरासी, खुमाण रासौ, वंश-भास्कर, मुख्यग्रंथ।
राजस्थानी बोलियों का वर्गीकरण
1. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन का वर्गीकरण- इन्होंने राजस्थानी बोलियों को पांच भागों में बाँटा-
(i) पश्चिमी राजस्थानी-मारवाड़ी तथा उसकी उपबोलियाँ
(ii) उत्तरी पूर्वी राजस्थानी-मेवाती तथा अहीरवाटी।
(iii) मध्य पूर्वी राजस्थानी-ढूंढाड़ी तथा इसकी उप बोलियाँ
(iv) दक्षिणी पूर्वी राजस्थानी-मालवी तथा राँगड़ी
(v) दक्षिणी राजस्थानी-निमाड़ी बोली।
2. एल.पी. तेस्सीतोरी का वर्गीकरण- इटली के इस विद्वान ने 1914 ई. से 1919 ई. के मध्य बीकानेर के दरबार में रहकर चारण तथा भाट साहित्य का अध्ययन किया।
एल.पी. तेस्सीतोरी ने राजस्थानी बोलियों को दो वर्गों में बाँटा-
(1) पश्चिमी राजस्थानी (ii) पूर्वी राजस्थानी
3. नरोत्तम स्वामी का वर्गीकरण- इन्होंने राजस्थानी बोलियों को चार वर्गों में बाँटा-
(1) पश्चिमी राजस्थानी मारवाड़ी
(i) पूर्वी राजस्थानी-दूंबाड़ी
(i) उत्तरी राजस्थानी-मेवाती
(iv) दक्षिणी राजस्थानी-मालवी
4. मोतीलाल मेनारिया का वर्गीकरण-वर्तमान में इनका वर्गीकरण सर्वाधिक मान्य है। इन्होंने राजस्थानी बोलियों को पाँच वर्गों में बांटा-
(i) मारवाड़ी (ii) मालवी (iii) ढूंढाड़ी (iv) मेवाती (v) बागड़ी
राजस्थानी बोलियों का संक्षिप्त विवरण
मारवाड़ी
कुवलयमाला में जिसे मरुभाषा कहा गया है, वह यही मारवाड़ी है। इसका प्राचीन नाम मरुभाषा है। जो पश्चिमी राजस्थान की प्रधान बोली है। मारवाड़ी का आरम्भ काल 8वीं सदी से माना जा सकता है। विस्तार एवं साहित्य दोनों ही दृष्टियों से मारवाड़ी राजस्थान की सर्वाधिक समृद्ध एवं महत्वपूर्ण भाषा है। इसका विस्तार जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, पाली, नागौर, जालौर एवं सिरोही जिलों तक है। विशुद्ध मारवाड़ी केवल जोधपुर एवं आसपास के क्षेत्र में ही बोली जाती है। मारवाड़ी के साहित्य रूप को डिंगल कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति गुर्जरी अपभ्रंश से हुई है। जैन साहित्य एवं मीरा के अधिकांश पद इसी भाषा में लिखे गए हैं। राजिये रा सोरठा, वेली किसन रुक्मणी री ढोला मारवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य मारवाड़ी भाषा में ही रचित है। मारवाड़ी की बोलियाँ- मेवाड़ी, वागड़ी, शेखावटी, बीकानेर, डक्की, थली, खैराड़ी, नागौरी, देवड़ापाड़ी, गौड़वाड़ी।
मेवाड़ी
उदयपुर एवं उसके आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है। इसलिए यहाँ की बोली मेवाड़ी कहलाती है। यह मारवाड़ी के बाद राजस्थान की महत्वपूर्ण बोली के विकसित और शिष्ट रूप के दर्शन हमें 12वीं एवं 13 वीं शताब्दी में ही मिलने लगते हैं। मेवाड़ी का शुद्ध रूप मेवाड़ के गाँवों में ही देखने को मिलता है। मेवाड़ी में लोक साहित्य का विपुल भण्डार है। महाराणा कुंभा द्वारा रचित कुछ नाटक इसी भाषा में है।
बागड़ी
डूंगरपुर एवं बाँसवाड़ा के सम्मिलित राज्यों का प्राचिन नाम बागढ़ था। अतः वहाँ की भाषा वागड़ी कहलायी, जिस पर गुजराती का प्रभाव अधिक है। यह भाषा मेवाड़ के दक्षिणी भाग, दक्षिणी अरावली प्रदेश तथा मालवा की पहाड़ियों तक के क्षेत्र में बोली जाती है। भीली बोली इसकी सहायक बोली है।
ढूंढाड़ी
उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, लावा तथा अजमेर मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली भाषा दूंढाड़ी कहलाती है। इस पर गुजराती, मारवाड़ी एवं ब्रजभाषा का प्रभाव समान रूप से मिलता है। बाड़ी में गद्य एवं पद्य दोनों में प्रचुर साहित्य रचा गया। संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएं की। इस बोली को जयपुरी या झाइशाही भी कहते हैं। इसका बोली के लिए प्राचीनतम उल्लेख 18वीं सदी की आठ देस गूजरी पुस्तक में हुआ है। ढूंढाड़ी की प्रमुख बोलियाँ-तोरावाटी, गजाबाटी, चैरासी (शाहपुरा), नागरचोल, किशनगढ़ी, अजमेर, काठेड़ी, हाड़ौती।
तोरावटी
झुंझुनूं जिले का दक्षिणी भाग, सीकर जिले का पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग तथा जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहा जाता है। अतः यहाँ की बोली तोरावाटी कहलाई। काठेड़ी बोली जयपुर जिले के दक्षिणी भाग में प्रचलित है जबकि चैरासी जयपुर जिले के दक्षिणी-पश्चिमी एवं टोंक जिले के पश्चिमी भाग में प्रचलित है। नागरचोल सवाईमाधोपुर जिले के पश्चिमी भाग एवं टोंक जिले के दक्षिणी एवं पर्वी भाग में बोली जाती है। जयपुर जिले के पूर्वी भाग में राजावाटी बोली प्रचलित है।
हाडौती
हाड़ा राजपूतों द्वारा शासित होने के कारण कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ का क्षेत्र हाड़ौती कहलाया और यहाँ की बोली हाड़ौती, जो ढूंढाड़ी की ही एक उपबोली है। हाड़ौती का भाषा के अर्थ में प्रयोग सर्वप्रथम केलॉग की हिन्दी ग्रामर में 1875 ई. में किया गया। इसके बाद ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ में भी हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी।
वर्तमान में हाड़ौती कोटा, बूंदी (इन्द्रगढ़ एवं नैनवा तहसीलों के उत्तरी भाग को छोड़कर), बारां (किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों के पूर्वी भाग के अलावा) तथा झालावाड़ के उत्तरी भाग की प्रमुख बोली है। हाड़ौती के उत्तर में नागरचोल, उत्तर-पूर्व में स्यौपुरी, पूर्व तथा दक्षिण में मालवी बोली जाती है। कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की रचनाएँ इसी बोली में हैं।
मेवाती
अलवर एवं भतरपुर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है। अतः यहाँ की बोली मेवाती कहलाती है। यह अलवर की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़, लक्ष्मणगढ़ तहसीलों तथा भरतपुर की कामां, डीग व नगर तहसीलों के पश्चिमोत्तर भाग तक तथा हरियाणा के गुड़गाँव जिला व उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले तक विस्तृत है। यह सीमावर्तिनी बोली है। उद्भव एवं विकास.की दृष्टि से मेवाती पश्चिमी हिन्दी एवं राजस्थानी के मध्य सेतु का कार्य करती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है। लालदासी एवं चरणदासी संत सम्प्रदायों का साहित्य मेवाती भाषा में ही रचा गया है। चरणदास की शिष्याएँ दयाबाई व सहजोबाई की रचनाएँ इस बोली में हैं। स्थान भेद के आधार पर मेवाती, मेव व ब्राह्मण मेवाती आदि।
अहीरवाटी
आभीर जाति के क्षेत्र की बोली होने के कारण इसे हीरवाटी या हीरवाल भी कहा जाता है। इस बोली के क्षेत्र को राठ कहा जाता है इसलिए इसे राठी भी कहते हैं। यह मुख्यतः अलवर की बहरोड़ व मुंडावर तहसील, जयपुर की कोटपूतली तहसील के उत्तरी भाग, हरियाणा के गुड़गाँव, महेन्द्रगढ़, नारनौल, रोहतक जिलों एवं दिल्ली के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। यह बांगरू (हरियाणवी) एवं मेवाती के बीच की बोली है। जोधपुर का हम्मीर रासौ महाकाव्य, शंकर राव का भीम विलास काव्य, अलीबख्शी ख्याल लोकनाट्य आदि की रचना इसी बोली में की गई है।
मालवी
यह मालवा क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। इस बोली में मारवाही एवं बाही दोनों की कुछ विशेषताएँ पाई जाती है। कहीं-कहीं मराठी का भी प्रभाव झलकता है। मालवी एवं कर्णप्रिय एवं कोमल भाषा है। इस बोली का रागही रूप कुछ कर्कश है, जो मालवा क्षेत्र के राजपूतों की बोली है।
नीमाड़ी
इसे मालवी की उपबोली माना जाता है। नीमाड़ी को दक्षिणी राजस्थानी भी कहा जाता है। इस पर गुजराती, भीली एवं खानदेशी का प्रभाव है।
खैराड़ी
शाहपुरा बूंदी आदि के कुछ इलाकों में बोली जाने वाली बोली, जो मेवाड़ी, ढूंढाड़ी एवं हाड़ौती का मिश्रण है।
रांगड़ी
मालवा के राजपूतों में मालवी एवं मारवाड़ी के मिश्रण से बनी रांगड़ी बोली भी प्रचलित है।
शेखावटी
मारवाड़ी की उपबोली शेखावटी राज्य के शेखावटी क्षेत्र (सीकर, झुंझुनूं तथा चुरु जिले के कुछ क्षेत्र) में बोली जाती है। जिस पर मारवाड़ी एवं ढूंढाड़ी का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
गौड़वाड़ी
जालौर जिले की आहोर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारम्भ होकर बाली (पाली) में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है। बीसलदेव रासौ इस बोली की मुख्य रचना है।
देवड़वाटी
यह भी मारवाड़ी की उपबोली है, जो सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है। इसका दूसरा नाम सिरोही है।
राजस्थानी बोलियों का वर्गीकरण
➤ राजस्थानी भाषा के साहित्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
•हिंगल में उपलब्ध साहित्य
• साधारण राजस्थानी में साहित्य
➤ प्रारम्भ में दोनों में कोई अंतर नहीं था, लेकिन आगे जाकर 'डिंगल' स्थायी हो गयी और कविगण विशेष रूप से ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगे जो साधारण राजस्थानी से अलग थे।
➤ “डिंगल' की उत्पत्ति के संबंध में यह माना जाता है कि ब्रज मिश्रित भाषा कविता जो 'पिंगल' के नाम से अभिज्ञात थी उसके समान्तर चारणों-भाटों की वीर रस वाली कविता का नाम सभ्यता के आधार पर 'डिंगल' कहलाने लगा होगा।
➤ 1871 में जोधपुर के कवि बंकीदास की रचना 'कुकवि बत्तीसी' में पहली बार इसका प्रयोग हुआ माना जाता है।
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